ज़िस्म इंसान का है कुछ तो ख़ताएँ होंगी
ज़िंदगी का है सफ़र कुछ तो बलाएँ होंगी
उसके लहज़े में महकती है वतन की खुशबू
कुछ मिट्टी का असर, माँ की दुआएँ होंगी
एक तिनके को जलाने में जल गई बस्ती
मेरा दावा है कि साज़िश में हवाएँ होंगी
हल्का हल्का ही सही कान में टकरातीं हैं
खुश्क मौंसम में परिंदों की सदाएँ होंगी
एक पागल भी मोहब्बत में सोचता होगा
मेरे महबूब के ज़ुल्फों में अदाएँ होंगी
अब उस पार ही हम सब का फैसला होगा
जैसा किरदार है वैसी ही सज़ाएँ होंगी
आखिरी वक्त में सामाने-सफ़र क्या होगा
एक मिट्टी का बदन, चंद रिदाएँ होंगी
--------राजेश कुमार राय-------
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