Wednesday 30 December 2015

कभी न बुझ सके जो, वो शम्मा जलायेंगे..........

नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे
नेक काम करके गुलशन को सजायेंगे
तूफान चाहे जितनी ताकत लगा ले अपनी
कभी न बुझ सके जो वो शम्मा जलायेंगे
नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे।

गुमनाम ज़िंदगी से सड़कों पे निकलकर
फूलों से काँटों के रिश्ते को समझकर
मुश्किल हो चाहे जितनीं इस राहे-ज़िंदगी में
मंज़िल के पास जा कर दुनियाँ को दिखायेंगे
नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे।

सच्चाईयों के राह पे चलते ही रहेंगे
साहिल सा समंदर से लड़ते ही रहेंगे
आओ मेरे पास भटकते हुये लोगों
नये वर्ष को हम सब मिल के मनायेंगे
नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे।

ईमाँन से रहोगे तरक्की भी रहेगी
दोस्तों में प्यार की गंगा ही बहेगी
सूरज की रौशनी में सितारे भी दिखेंगे
चैन की बंशी हम दुनियाँ को सुनायेंगे
नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे।

कभी न बुझ सके जो, वो शम्मा जलायेंगे
नये साल में हम तक्द़ीर बनायेंगे।

-----------राजेश कुमार राय।------------

Saturday 14 November 2015

हाले-दिल को राज़ बनाकर दर्द बढ़ाया है मैनें.........

जुल्म बहुत है, कहाँ है ईश्वर, कब लेंगे अवतार बता
सारी दुनियाँ भाग रही है, तुम अपनी रफ़्तार बता।

हर रोज तरक्की होती है, अफ़सोस खज़ाना खाली है
किन हाथों से लुटता भारत जुड़ा कहाँ है तार बता।

हिज्र का मारा, शाख पे बैठे एक परिंदे से पूछा
प्यार के ज़ख्मी कुछ तो बोलो, पड़ी कहाँ है मार बता।

चारो तरफ एक कोलाहल है दहशत जैसा मंज़र है
बिना वजह के लाश बिछी है, कैसी है तलवार बता।

हाले-दिल को राज़ बनाकर दर्द बढ़ाया है मैनें
दिल की बातें रफ़्ता-रफ़्ता कर दूँ क्या इज़हार बता।

पानी का अम्बार लगा है मेघ बरसते जाते हैं
बाढ़ बहुत है, टूटी कश्ती, उतरूँ कैसे पार बता।

इस शहरे-जुदाई में मैनें अफ़सोस बहुत कुछ खोया है
सब धरती-अम्बर उसका है तो मेरा क्या है यार बता।

बेटा-बेटी पूरक हैं तो भेद यहाँ क्यों होता है
बेटा सोये बेटी रोये, ये कैसा अधिकार बता।

       -----------राजेश कुमार राय।----------

Thursday 8 October 2015

दुकानें बन्द कर दो अब, दुआएँ बेचने वालों.....

                       (1)
दुकानें बन्द कर दो अब दुआएँ बेचने वालों
जमाना खुद बनायेगा मुकद्दर देख लेना तुम।

                       (2)
मुद्दतों बाद उसके हक् में फैसला आया
जिसके इंतज़ार मे साँसें ठहर गयी उसकी।

                       (3)
साकी ने दिया ज़ाम मगर बेरूखी के साथ
ऐसे में मैकशों को नशां खाक् चढ़ेगा।

                      (4)
गरीबों, के उजालों को छीनने वाला
तड़प-तड़प के अधेरों में मर गया आखिर।

                      (5)
परिंदा मार करके जीत का तुम जश्न करते हो
उनकी बद्दुआ से क्या तुम्हे कुछ डर नहीं लगता।

                      (6)
नजरें घड़ी पर, और बेचैनी से लगता है
कि महबूब ने मिलने का वादा कर लिया उससे।

    --------राजेश कुमार राय।-------

Saturday 5 September 2015

मौंत नें जाल उस पर कसा इस कदर.......

कुचल करके सड़कों पे मारा गया
क्या तुम्हारा गया, क्या हमारा गया?

उस माँ पे क्या गुजरी है पूछो जरा
जिसके आँचल का कोई सितारा गया।

भँवर में फँसा था, तो कोई न आया
बस साहिल से मुझको पुकारा गया।

मौंत नें जाल उस पर कसा इस कदर
कि, वो मक्तल से आ के दुबारा गया।

सब फ़रिश्ते सफर में भटकते रहे
और सियासत में ज़ालिम सँवारा गया।

एक बेटी तरसती रही उम्र भर
प्यार, बेटे के हिस्से में सारा गया।

मैकद़ा, मैकद़ा ढूँढता रह गया
वो साकी गयी, वो नज़ारा गया।

जिसकी गवाही अहम थी उसे,
मौंत के घाट पहले उतारा गया।

---------राजेश कुमार राय।--------

Saturday 1 August 2015

वरना इसी चराग़ ने सब कुछ जला दिया.......

                          (1)
कुछ बेबसी थी ऐसी तारीफ़ कर रहा था
वरना इसी चराग़ ने सब कुछ जला दिया।

                          (2)
झूठ के शहर में, अफवाह गर्म है
साकी भी बिक गयी है मेंरे मैकद़े के साथ।

                          (3)
अव्वल रहीं है बेटियाँ उस इम्तेहान में
जहाँ से मुल्क के सबसे बड़े हाक़िम निकलते है।

                          (4)
अब्र के टुकड़ों पे भरोसा करके
आ फसलों को सूरज के हवाले कर दें।

                          (5)
तुम जा रहे हो? ठीक है! मेरी याददाश्त भी लेते जाओ,
तेरी यादों के पुलिन्दे मुझे हँसनें नहीं देगें।

                          (6)
वो जिस जगह जाता है बस इक आग सी लगती है
बारूद से उसका कोई रिश्ता पुराना है।

                         (7)
एक तश्वीर बनाता रहा मैं सारी जिंदगी
ये सोचकर कि शायद इसमें जान आ जाये।

     --------राजेश कुमार राय।--------

Saturday 4 July 2015

सैय्याद भी फँसेगा किसी जाल में एक दिन----

हाथों से अपनें ज़ाम पिलाकर तो जरा देख
फूल कोई द़िल में खिलाकर तो जरा देख।

बेटियाँ भी दर्द तेरा दूर करेगीं
प्यार से दामन में बिठाकर तो जरा देख।

हौसला कितना है अभी शेष ज़िगर में
तूफान में में कश्ती को नचाकर तो जरा देख।

आईना भी सहम जायेगा ज़ानिब तेरे आकर
ठीक से नज़रों को मिलाकर तो जरा देख।

कामयाबियों के दिन भी आयेगें तेरे घर
पलकों पे कोई ख्वाब सजाकर तो जरा देख।

चाँद भी बेताब है दीदार की ख़ातिर
घूँघट को चेहरे से उठाकर तो जरा देख।

सैय्याद भी फँसेगा किसी जाल में एक दिन
"राजेश" अपना जाल बिछाकर तो जरा देख।

-------------राजेश कुमार राय।--------------

Wednesday 3 June 2015

रात चाँदनीं, लोग जुटेगें, सोचो क्या मंज़र होगा------

                              (1)

रात चाँदनीं, लोग जुटेगें, सोचो क्या मंज़र होगा
जब दर्द बँटेगा रात कटेगी दीवानों की महफ़िल में।

                              (2)

बेसबब सवाल, बहुत पूछते हो आज
क्या तुम्हारा दर्द भी हद पार कर गया ?

                              (3)

मेरा दिल बहुत उदास सा रहता है आजकल
ये उसके तग़ाफुल का असर है शायद।

                              (4)

इंसान को मज़हब में बाँटनें वालों
खूँन का रंग बदल दो तो मैं तुमको जानूँ।

                             (5)

कभी बाढ़, सुनामी तो कभी ज़लज़ला आया
कहीं किश्तों में कयामत का सिलसिला तो नहीं है !

                             (6)

किसी की बादशाहत से मुझे कुछ भी नहीं लेना
मगर ये भी जरूरी है कि सबकी भूख मिट जाये।

                             (7)

कुछ ज़ख्म तुम्हारे दिल में है, कुछ दर्द रफ़ीकों से लेकर
"राजेश" मुकम्मल होनें का कुछ तुम भी लुत्फ उठा लेना।
    
     -----------राजेश कुमार राय।----------

Saturday 2 May 2015

ज़ुल्म करता है एक ताज़ियाना यहाँ.......

होश वालों जरा तुम भी आना यहाँ
साकी की नज़र आज़माना यहाँ।

हर तरह की कसक भूल जाओगे तुम
मैक़दे की कसम डूब जाना यहाँ।

बचकर निकलना तो मुश्किल है अब
हर नज़र है बहुत क़ातिलाना यहाँ।

सबकी ज़ुबाँ पर है पहरा लगा
ज़ुल्म करता है एक ताज़ियाना यहाँ।

जीत की चाहतों को लिये फिर रहा
अब मुझको नहीं मात खाना यहाँ।

बेटे के लिये तुम तड़पते हो क्यूँ?
बेटी का भी हाज़िर है शाना यहाँ।

हवा के असर से है मुमकिन "राजेश"
टूट जायेगा एक आशियानाँ यहाँ।

......राजेश कुमार राय।........

Saturday 4 April 2015

मुफ़लिस की मौंत हो गयी रोटी की कमीं से......

हर रोज नये ख़्वाब तुम पलकों पे सजाना
प्यार ज़िंदगी का है अनमोल ख़जाना।

निकलते हुये खुशबू से, फूलों नें ये कहा
फिज़ाओं में घुलकर मेरी पहचान बना जाना।

बारिश का कहर,और टपकते हुये कुछ घर
रईस कह रहा है कि, मौंसम है सुहाना।

मुफ़लिस की मौंत हो गयी रोटी की कमीं से
हुकूमत बता रही है तरक्की का फ़साना।

प्यार में मरनें की कसम खानें से बेहतर
प्यार जो करते हो, तो ताउम्र निभाना।

इंतज़ार में बैठा हूँ, मेरा हक़ तो मिलेगा
आता नहीं है यार मुझे शोर मचाना।

"राजेश"मेरी रात भी ग़मग़ीन बहुत है
उम्मीदे-सहर में कोई आवाज़ लगाना।

..........राजेश कुमार राय।.........

Saturday 28 February 2015

इस रंगे-सुख़न के मौसम में चल सारी अदावत भूलें हम.....

                        (1)
खेलो जितना खेल सको, बस नाजुक आँख बचा करके
ये होली मिलन की बेला है, कोई चूक कहीं ना हो जाये।

                       (2)
फागुन के नँशीले झोंकों में, और फिजाँ में चारो तरफ
बस पायल की झँनकारों का संगीत सुनायी देता है।

                       (3)
मौसम की खुमारी में प्यारे थोड़ा और नशा चढ़ जाने दे
तब दीवानी चुनरी में हम सातों रंग लगायेंगें।

                      (4)
पूछता हूँ हाल तो इतराते हैं ज़नाब
हाले-दिल बेकार है फागुन में पूछना।

                      (5)
तज़ल्ली है रूक्सार पे, चूड़ी है खँनकती
लगता है कि परदेश से दीवाना आ गया।

                      (6)
इस रंगे-सुखन के मौसम में चल सारी अदावत भूलें हम
क्या जानें कल हम न रहें या क्या जानें कल तुम न रहो।
..............राजेश कुमार राय.............

Friday 20 February 2015

मुसव्विर हूँ छोटा तसव्वुर बड़ा है........

मेरी वफा को छोड़ो अपनीं वफा को देखो
उसनें कहा था यही चलते-चलते।

क्या ज़वाब देता उस आख़िरी मिलन में
खामोंश रह गया था मैं हाथ मलते-मलते।

ऐसा मुझे लगा था मैं हो गया हूँ खाली
थोड़ा सा बस बचा था एहसास मरते-मरते।

मुख्तसर सी ज़िन्दगी को फिर से शुरू करो तुम
पैगाम ये दिया था सूरज नें ढ़लते-ढ़लते।

सब ठीक चल रहा था न जानें क्यूँ अचानक
महफ़िल में बुझ गयी थी एक शँम्मा जलते-जलते।

मेरी कोशिश यही थी न कुछ हो मगर
हादसा हो गया, हादसा टलते-टलते।

वो मेंरा नहीं था मगर मेंरे यारों
एक रिश्ता जवाँ हो गया पलते-पलते।

मुसव्विर हूँ छोटा तसव्वुर बड़ा है
इल्तज़ा है मरूँ तो ग़ज़ल कहते-कहते।

........राजेश कुमार राय.........

Monday 2 February 2015

"समन्दर"

हवाओं के सहारे से बहता है समन्दर
तूफानों के इशारे से उफनता है समन्दर
मुहब्बत है करता चाँद से कितना ये समन्दर
चाँद ये कहता है कि प्यारा है समन्दर।

लहरों को सुनों उनसे ये आवाज़ आती है
दुश्मन की चोट से कभी घायल नहीं होना
जिसको समझते हो कि पानी की भीड़ है
दुनियाँ में किसी से नहीं हारा है समन्दर।

मैकदे की शाम को जरा तुम गौर से देखो
लगता है जैसे शाँमे नजारा है समन्दर
नाचतीं हैं इस तरह से शराबों की बोतलें
जैसे किसी नें उसमें उतारा है समन्दर।

एक दुनियाँ ही दूसरी है समन्दर के पेट में
सूरज भी डूबता है समन्दर की बाँह में
शाँमों-सहर इस पर टहलतीं कश्तियाँ
इतिहास से पहले का नज़ारा है समन्दर।

समन्दर सा ज़लवा नहीं देखा है आज तक
राम नें भी उसको नमस्कार किया था
दुनियाँ की तरक्की राज़ उसके ज़हन में
इसलिए हम सब का दुलारा है समन्दर।

........राजेश कुमार राय।........

Tuesday 27 January 2015

"तन्हाई"

तन्हाई और मैं दोनों एक ही मन
तन्हाई और मैं दोनों एक बदन
रहना कठिन एक दूजे के बिन
तन्हाई नें मुझसे कहा एक दिन

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना
तन्हाई को तुम द़िल में रखना
तन्हाई को तन्हा मत करना।

ग़म को भुलानें की ख़ातिर दुनियाँ मैख़ानें जाती है
प्याला पीकर ग़म की कहानी औरों को वह सुनाती है
ग़म का बँटवारा करके जब महफ़िल घर को आती है
तब ऐ ग़म के नादानों तन्हाई ही साथ निभाती है
देख हमारी दीन-दशा तन्हाई यही फ़रमाती है

तन्हाई से नफरत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना........

सड़कें तन्हा रहतीं हैं महफ़िल भी तन्हा हो जाती
चिड़िया दाना चुग करके जब लौट नशेमन को जाती
और फ़कीरों की दुनियाँ जब अपनें धुन में खो जाती
रात के इस अँधियारे में जब दुनियाँ सारी सो जाती
तब मुझे अकेले पा करके तन्हाई मुझसे कहती है

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

तन्हा-तन्हा शाम को जब मैं घर के अन्दर आता हूँ
माचिस लेकर दीपक पर मैं शमाँ ज़लानें जाता हूँ
दीपक हँसकर कहता है तन्हाई दूर भगाता हूँ
ऐसा लगता तन्हाई से रिश्ता टूटा जाता है
ज़ोर-ज़ोर से तन्हाई, तन्हाई मैं चिल्लाता हूँ
आशिक ठहरा उसका मैं माशूक मेरी तन्हाई है
गले लगाकर सारी रात मैं उसका ही गीत सुनाता हूँ

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

कुछ दिन तन्हाई में मैं द़रिया के किनारे जाता था
दरिया के लहरों, साहिल को सहमा-सहमा पाता था
झुंड उसी पर चढ़ करके साहिल से साहिल आता था
सूरज का परिवार समन्दर में जब डुबकी लगाता था
चाँद, सितारों से मिलकर जब महफ़िल खूब सज़ाता था
जैसे-जैसे मरघट सा सन्नाटा छाता जाता था
वैसे-वैसे अन्दर से एक राग़ उभरता जाता था

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना.......

मंदिर की ख़ामोशी में भी देख वही तन्हाई है
मस्ज़िद में जब-जब नमाज़ हो तब भी एक तन्नहाई है
गिरज़ाघर, गुरूद्वारों की दीवारों में तन्हाई है
जिधर नज़र पड़ती है मेरी वहीं-वहीं तन्हाई है
जीवन भर तुम किसी भाँति यदि तन्हाई से दूर रहे
तो कब्र के अन्दर भी तन्हा और मरघट पर तन्हाई है
जहाँ-जहाँ पर गया वहाँ पर तन्हाई को पाता हूँ
एक बार फिर पुनः यहाँ संगीत वही दुहराता हूँ

तन्हाई से नफ़रत मत करना
तन्हाई को तुम ज़िन्दा रखना
तन्हाई को तुम दिल में रखना
तन्हाई को तन्हा मत करना।

......राजेश कुमार राय.......

Friday 23 January 2015

मग़रूर की महफ़िल में सब कुछ तो है मगर......

बीबी का कत्ल कर दिया पैसे के वास्ते
फिर भी वो कह रहा है गुनाहग़ार नहीं है।

मग़रूर की महफ़िल में सब कुछ तो है मगर
मौंसिकी का एक भी फ़नकार नहीं है।

जिस घर में बेटियाँ नहीं तो रूह भी नहीं
दौलत है, शोहरत है, झनकार नहीं है।

रिश्तों का नाम हमनें दिया जितनें भी उसमें
एक माँ के जैसा कोई भी किरदार नहीं है।

चन्द सिक्कों के लिये बेंच दे ईमाँ अपना
"राजेश" इस तरह का कलमकार नहीं है।

.........राजेश कुमार राय.........

Friday 16 January 2015

समन्द़र की प्यास देखकर मुझको यही लगा....

                          (1)
समन्दर की प्यास देखकर मुझको यही लगा
जैसे किसी अमीर की दस्तार बिक गयी।
                          (2)
सारा शहर दहशत की गुँजलक में कैद है
अफवाह हैं कि, ज़श्न मनाते नहीं थकते।
                          (3)
इस दौर में माली ही शज़र काट रहे हैं
ऐसे में दरख्तों की सद़ा कौन सुनेंगा।
                          (4)
तीर खा के परिन्दे नें शिकारी से ये कहा
मैं तो मर जाऊँगा, तू भूख मिटा ले अपनी।
                          (5)
शज़र,साँसों की खुराकें दे के भी खामोंश रहते हैं
हम कुछ नहीं देकर भी कितना शोर करते हैं।
                          (6)
वो मिलता है सबसे बड़े सलीके से
ऐसी तहज़ीब उसकी माँ नें सँवारा होगा।
                          (7)
बड़े अरमान से चिड़ियों नें बनाया था घोसला
मगर तूफान की रफ्तार नें बर्बाद कर दिया।
                          (8)
दग़ाबाजी, बेवफ़ाई, मक्कारी सब कुछ तो कर लिया
अब चलो थोड़ी सी वफादारी सीख लें।
                          (9)
ज़िन्दगी का कहा मान के म़क्तल चला गया
मुस्कुरा के कहा मौंत नें कि तुमको शुक्रिया।

    ........राजेश कुमार राय.......

Thursday 15 January 2015

पहली ही मुलाकात में परवाना मर गया.....

                     (1)
उसको जुनूँन है मेरी हस्ती मिटा दे,इसलिये
हर वक्त अपनें चाकुओं को धार देता है
एक तरफ मेरी अना, एक तरफ उसका गुरूर
अब देखते हैं कौन बाजी मार लेता है।
                     (2)
एक शख्स दग़ा कर रहा है हर किसी के साथ
नज़रों से ज़मानें की मुकम्मल उतर गया
इज़हारे मुहब्बत का ज़ुनूँ गौर से देखो
पहली ही मुलाकात में परवाना मर गया।
                     (3)
साहिल के सुकूँ से मेरा दिल ऊब गया है
मौज़ों से उलझनें का मज़ा ले रहा हूँ मै
जिस-जिस की तमन्ना हो आ जाये मेरे साथ
दुनियाँ के हौसलों को सदा दे रहा हूँ मै।
                     (4)
कोई सपना बनाता हूँ वो सपना टूट जाता है
कोई भी काम करता हूँ, मुकद्दर रूठ जाता है
किसी का घर जलानें वालों थोड़ा होश में आओ
एक घर बनानें में पसीना छूट जाता है।
               ....राजेश कुमार राय।.....

Sunday 11 January 2015

उदास मैं गया था गुलों के दयार में.....

                             (1)
 फूलों का प्यार देखकर हैरान रह गया
 तमाम रंग मेरे बदन पर चढ़ा दिया
उदास मैं गया था गुलों के द़यार में
खुशबू नें मेरे दिल का तब़स्सुम बढ़ा दिया।
                              (2)
एक लड़की के जीवन की यही रस्मो-रिवायत है
बचपन के एक आँगन से रिश्ता तोड़ जाती है
सबसे बड़ी हिज़रत तो एक बेटी की हिज़रत है
परायों के लिये जो माँ का आँचल छोड़ जाती है।
                            (3)
दुश्मन की मौंत पर मेंरे आँसू छलक गये
खुद़ गया और मेरी अना साथ ले गया
उसके बगैर ज़िन्दगी वीरान हो गयी
अपनें वज़ूद का मुझे एहसास दे गया।
                            (4)
सारा अनाज़ मालिकों के घर चला गया
सब मज़दूर की मेंहनत थी ज़मीदार की नहीं
जुगुनूँ नें कहा चाँद से ललकार मुझमें
रोशनीं तो बहुत कम है पर उधार की नहीं।

       -------राजेश कुमार राय।-----
    

Wednesday 7 January 2015

हिमालय की चीख

विधि नें यह खेल जो खेला है
यह महाप्रलय की बेला है,
धरती की चित्कार है यह
और पर्वत की ललकार है यह
दरिया की उफनती धारों से
इन्सानों को फटकार है यह
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

देवभूमि पर इन्सानों का
बहुत दिनों से हमला था
चोटें खाता बार-बार और
बार-बार वह सम्हला था
पर्वत,नदियाँ क्रुद्ध हुँई तो
लाश बिछ गया पावन में
ईश्वर की महिमा को देखो
आग लगा दी सावन में
हम भी रोये तुम भी रोये
रोनें का कुछ लाभ नहीं,
नहीं बचा है नहीं बचा
मत पीड़ा अपरम्पार करो
चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

जिस जगह से गंगा चलती है
यमुना भी वहीं निकलती है
वह पत्थर नहीं हिमालय है
ऋषि मुनियों का विद्यालय है
इस शान्ति भूमि पर इन्सानों नें
बहुत ही शोर मचाया है
चिल्लाता हूँ ऐ शैल शिखर
तुम जलो-जलो तुम और जलो
यहाँ रहना बहुत कठिन है प्रिये
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

कितनों के सपनें टूट गये
कितनों के अपनें रूठ गये,
प्रकृति का यह प्रतिकार हुआ
और मेघपुरी वार हुआ,
मानव की रचना बिखर गयी
इंसा की तबियत सिहर गयी
जिस जगह से मुक्ति मिलती थी
जीवन की कलियाँ खिलती थी
उस तपोभूमि के मंदिर का
सब खत्म हुआ बाजार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।

पर्वत के अंचल की धरती
सिसक-सिसक कर कहती है
जुल्म हमारे बहुत दिनों से
धीरज पूर्वक सहती है
शान्त हो गया क्रोध वहाँ का
फिर से प्रेम बुलायेगा
दिव्यलोक का पैगम्बर
कुछ नियम बतानें आयेगा,
जय, जय हो गंगोत्री का
और यमुनोत्री की धार चलो
चमन हमारे रूद्रलोक का
होगा फिर गुलज़ार चलो,
अब चलो प्रकृति के पार चलो
अब चलो प्रकृति के पार चलो।
.........राजेश कुमार राय।.........