इक रेत की दीवार फिसलती चली गयी
बुनियाद भी कमजोर थी हिलती चली गयी।
उम्मीद थी कि फिर से मिलेंगे जरूर हम
हिज्र की इक शाम थी ढ़लती चली गयी।
ख़ामोश ही रहेंगे यही सोच रहा था
पर बात जो निकली तो निकलती चली गयी।
जुगनूँ जो आफ़ताब की इज्ज़त न कर सका
जुबाँ खुली तो आग उगलती चली गयी।
पत्थर के पैरहन में जंगल की ज़िदगी
बस एक ही लिबास में चलती चली गयी।
हसरत की इंतहा ने उसे तोड़ दिया है
तक्द़ीर ही खराब थी छलती चली गयी।
तहज़ीब मिट रही है रिश्तों के बीच से
तरक्की के साथ दुनियाँ बदलती चली गयी।
---------राजेश कुमार राय।--------